दक्षिण के राज्यों का डर तो यूपी-बिहार वाले ही खत्म कर सकते हैं, आबादी का यह पेच समझिए

लेखक: डी. सुब्बाराव
पिछले हफ्ते आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने दंपत्तियों से राज्य में बढ़ती उम्र की आबादी के बोझ से लड़ने के लिए ज्यादा बच्चे पैदा करने का आग्रह किया था। अगले दिन उनके समकक्ष तमिलनाडु के एमके सीएम स्टालिन ने ए

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लेखक: डी. सुब्बाराव
पिछले हफ्ते आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने दंपत्तियों से राज्य में बढ़ती उम्र की आबादी के बोझ से लड़ने के लिए ज्यादा बच्चे पैदा करने का आग्रह किया था। अगले दिन उनके समकक्ष तमिलनाडु के एमके सीएम स्टालिन ने एक तमिल कहावत का हवाला देते हुए लोगों से बड़े परिवार की विशेषता बताई। उन्होंने कहा, 'बड़ा परिवार, खुशहाल परिवार होता है।' हालांकि दोनों मुख्यमंत्रियों ने इस मुद्दे को अलग-अलग तरीके से पेश किया, लेकिन अंतर्निहित संदेश स्पष्ट रूप से एक था- जनसंख्या नियंत्रण में सफल होने वाले राज्यों को दंडित न करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो हमारे पास अपनी आबादी बढ़ाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। तो, जनसंख्या नियंत्रण में सफल राज्यों की शिकायत वास्तव में क्या है? यह राजनीति और अर्थशास्त्र दोनों को जोड़ती है। आइए पहले आर्थिक पहलू को लें।
कई रास्ते हैं जिनके जरिए केंद्रीय संसाधन राज्यों तक पहुंचते हैं। इनमें से सबसे संगठित तरीका वित्त आयोग से मिला ट्रांसफर है जिसके तहत केंद्र अपने टैक्स पूल का 41% राज्यों को देता है। राज्यों में इस पूल के वितरण में समानता का सूत्र अपनाया जाता है जिसमें आबादी की बड़ी भूमिका होती है- राज्य की जितनी बड़ी जनसंख्या, उसका उतना ज्यदा हिस्सा।

हर पांच साल में एक बार नियुक्त होने वाले वित्त आयोगों को ऐतिहासिक रूप से 1971 की जनसंख्या के आंकड़ों का उपयोग करने का आदेश दिया गया है, ताकि केंद्रीय कर के खजाने में ज्यादा हिस्सेदारी की लालच में परिवार नियोजन की उपेक्षा करने वाले राज्यों को गलत प्रोत्साहन न मिले। इस लंबे समय से चले आ रहे मानदंड को तब बदल दिया गया जब 2017 में नियुक्त 15वें वित्त आयोग को राज्य की व्यय आवश्यकताओं के आकलन में 2011 की जनसंख्या आंकड़ों का उपयोग करने के लिए कहा गया। जिन राज्यों ने जनसंख्या स्थिरीकरण में अच्छा प्रदर्शन किया था, विशेष रूप से दक्षिणी राज्यों ने, आधार वर्ष में इस बदलाव का विरोध किया और इसे 'परिवार नियोजन में सफल रहने का दंड' करार दिया।

संभवतः इससे सबक लेते हुए, पिछले साल नियुक्त 16वें वित्त आयोग को जनसंख्या के किस आंकड़े का उपयोग करना है, इस पर कोई विशिष्ट आदेश नहीं दिया गया है। हालांकि इसकी संभावना बहुत कम है कि वे 1971 के आंकड़ों पर लौटेंगे। राज्यों को केंद्रीय संसाधन सहायता के लिए दूसरा प्रमुख मार्ग केंद्र प्रायोजित योजनाएं (सीएसएस) है। यहां भी कुल सीएसएस पूल में किसी राज्य का हिस्सा मुख्य रूप से उसकी जनसंख्या से ही निर्धारित होता है, हालांकि वित्त आयोग से मिली राशि की तुलना में यह कम स्ट्रक्चर्ड होता है।

सॉफ्ट इन्फ्रा (मसलन कोई आईआईटी या एम्स) और हार्ड इन्फ्रा (मसलन सड़क, बंदरगाह आदि) में केंद्रीय फंड से निवेश, राज्यों को केंद्र सरकार से मिलने वाली सहायता में हिस्सेदारी का दूसरा तरीका है। इस माध्यम से किस राज्य को कितनी फंडिंग होगी, इसका कोई सूत्र नहीं है। यह पूरी तरह राजनीतिक और वोट बैंक का मसला है। इसमें आबादी की भूमिका बहुत ज्यादा होती है। बड़ी आबादी वाले राज्य ज्यादा फायदे में रहते हैं।

कुल मिलाकर, बड़ी आबादी वाले राज्यों को केंद्रीय संसाधन सहायता में विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं। चूंकि हाल के दशकों में जनसंख्या वृद्धि दर अलग-अलग रही है, जिन राज्यों ने जनसंख्या नियंत्रण में अच्छा प्रदर्शन किया है, उन्हें अधिक नुकसान होने लगा है। दरअसल, कुछ राज्यों में प्रजनन क्षमता प्रतिस्थापन स्तर (रिप्लेसमेंट रेट) से नीचे पहुंच गई है जबकि अन्य उससे काफी ऊपर हैं।

राजनीतिक आयाम मुख्य रूप से 2026 में होने वाले संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों के आसन्न परिसीमन से संबंधित है। छोटे परिवार के मानदंड को हतोत्साहित न करने के लिए, 1976 में जनसंख्या के आधार पर संसदीय क्षेत्रों के परिसीमन को 25 वर्षों के लिए रोक दिया गया था। 2001 में वाजपेयी सरकार ने इसे दोबारा 25 वर्षों के लिए रोका था। जनसंख्या नियंत्रण के मोर्चे पर सफल होने वाले राज्यों को अब आशंका सता रही है कि यदि 2026 में परिसीमन होता है तो संसद में उनका प्रतिनिधित्व तुलनात्मक रूप से और कम हो जाएगा।

संक्षेप में, यह उन राज्यों पर दोहरी मार है जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण पर अच्छा प्रदर्शन किया है। एक तो उनका केंद्रीय संसाधनों में हिस्सा कम होता जा रहा है, दूसरा उनकी राजनीतिक शक्ति घटने का खतरा मंडरा रहा है। इस बहस को हाथ से निकल जाने देना नासमझी होगी। वास्तविकता यह है कि हमारे पास अभी भी जनसंख्या की समस्या है। 1.4 अरब की हमारी जनसंख्या हमारे पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) की वहन क्षमता से ऊपर बनी हुई है। इसके लिए हमें और किसी सबूत की जरूरत नहीं है, जो हम हर दिन देखते और अनुभव करते हैं- हमारी झुग्गियां और अवैध बस्तियां, हमारे भीड़भाड़ वाले शहर और कस्बे, सूखती झीलें और मरती नदियां, बंजर पहाड़ियां, प्रदूषित हवा और पानी।

जब हम पिछले साल चीन को पीछे छोड़कर सबसे ज्यादा आबादी वाला देश बन गए, तो हमारी कामकाजी उम्र की आबादी के बड़े आकार के कारण जनसांख्यिकीय लाभांश की बहुत चर्चा हुई। लेकिन जनसांख्यिकीय लाभांश अपरिहार्य नहीं है; यह तभी संभव होगा जब हम कामकाजी उम्र के लोगों को काम मुहैया करा पाएंगे। मौजूदा आबादी के लिए भी नौकरी पाना एक बड़ी चुनौती साबित हो रही है। यह और भी मुश्किल हो जाएगा क्योंकि कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) इंसानों से नौकरियां छीन रही है। उस स्थिति को देखते हुए, यह मानना हमारे लिए मूर्खता होगी कि हमने जनसंख्या की समस्या को हरा दिया है।

राज्यों में जनसंख्या नियंत्रण में असमान सफलता ने राजनीतिक तनाव को जन्म दिया है। परिवार नियोजन में सफल रहने वाले राज्यों के लिए इस समस्या का समाधान जनसंख्या बढ़ाने में नहीं है; इसका समाधान देश भर में जनसंख्या के वितरण को समान करना है। ऐतिहासिक रूप से सफल शहरों की विशेषता देश के कोने-कोने से रोजगार की तलाश में आए लोगों का स्वागत करने में रही है। श्रम गतिशीलता - लोगों का वहां जाना जहां नौकरियां और अवसर हैं - वास्तव में अमेरिकी सक्सेस स्टोरी की नींव में से एक रही है। जनसंख्या नियंत्रण का उद्देश्य पर आगे बढ़ते हुए आंतरिक प्रवास को प्रोत्साहित करना हमारी नीतिगत प्राथमिकता होनी चाहिए।

लेखक आरबीआई के पूर्व गवर्नर हैं।

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मनोज शर्मा

मनोज शर्मा (जन्म 1968) स्वर्णिम भारत के संस्थापक-प्रकाशक , प्रधान संपादक और मेन्टम सॉफ्टवेयर प्राइवेट लिमिटेड के मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं।

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